चुहार घाटी के आराधय देवता श्री हुरंग नारायण का ऐतिहासिक रहस्य ( Historical mystery of Shri Hurang Narayan, the deity of Chuhar Valley )


मंडी जिले की चौहार घाटी में बहुत से देवी देवता हैं। उनमें से तीन मुख्य देवता हैं; इलाका हस्तपुर के देव हुरंग नारायण, अमरगढ़ के देव घड़ौनी नारायण और देव पशाकोट।  कहा जाता है कि ये तीनों देवता भाई हैं। देव श्री हुरंग चुहार घाटी के आराधय देवता श्री हुरंग नारायण का ऐतिहासिक रहस्यनारायण को बड़ा देव भी कहा जाता है। देव श्री घड़ौनी नारायण पधर (मंडी)। महाशिवरात्रि उत्सव खत्म होने पर वापस लौटे चौहारघाटी के आराध्य देव हुरंग नारायण अपने प्राचीन मंदिर हुरंग में सोमवार को विराज गए। मंडी मेले के अंतिम दिन हस्तपुर चौहारघाटी, अमरगढ़ के देवताओं ने मेले में पहले की तरह मान सम्मान न मिलने पर नाराजगी जताई थी।  घाटी के देवता रियासतकाल में जो मान सम्मान उन्हें मंडी के राजाओं द्वारा दिया जाता था उसे अब प्रशासन से चाह रहे हैं। घाटी के अधिकांश देवता उपमंडल मुख्यालय पधर पहुंच गए हैं। भगवान कृष्ण रूपी बड़ादेयो हुरंग नारायण का रथ सोमवार को अपने प्राचीन मंदिर हुरंग गांव में भंडार में विराज गया। वर्षा बरसाकर देव हुरंग नारायण ने पहले शुद्धि की और हारका प्रथा को अंजाम देने के बाद अपने मंदिर में बिराजे। घाटी के देव त्रैलू गहरी, पेखरू गहरी, द्रूण गहरी, बरोट गहरी के रथ भी घाटी की सीमा को पार कर गए हैं। अमरगढ़ चौहारघाटी के बड़ादेयो भगवान बलराम रूपी घड़ौनी नारायण का रथ भी चौहारघाटी के घड़ौन गांव को रवाना हो गया है। इस देवता का रथ भी एक दो दिनों के भीतर घड़ौन गांव में अपने प्राचीन मंदिर पहुंच जाएगा। वजीर देव पशाकोट का रथ अभी पधर क्षेत्र में रुकेगा। होली का पर्व भी देव पशाकोट हर वर्ष की भांति पधर में ही मनाएंगे। मंगलवार को पशाकोट कुन्नू पंचायत के जुंढर गांव में गए और रात को वहीं रुके। घोघरधार में रविवार को देव समाज पर आस्था रखने वाले लोगों ने देव हुरंग नारायण का स्वागत किया। देवता के सम्मान में यहां मेमनों की बली दी गई और मंडयाली धाम परोसी। देव हुरंग नारायण लद्यु शिवरात्रि मेला में प्रथम अप्रैल को जोगिंद्रनगर पहुंचेंगे। देव पशाकोट भी मेले में शिरकत करेंगे। देव घड़ौनी नारायण जोगिंद्रनगर मेले में हिस्सा नहीं लेते।    देव हुरंग नारायण का मोहरा साढ़े चार दशक पुराना  चौहारघाटीमें सबसे वरिष्ठ देव हुरंग नारायण को माना जाता है। चौहार घाटी के गांव हुरंग के कारण नारायण देवता का नाम हुरंग नारायण है। हुरंग गांव के पीछे देवता का घना जंगल है। इस जंगल में कोई व्यक्ति लकड़ी नहीं काट सकता है। प्राचीनकाल से देवी-देवता जंगलों की रक्षा कर रहे है। आज भी यह जंगल बेहद घना, सुंदर विशाल हो चुका है। हुरंग गांव में कोई भी व्यक्ति बीड़ी, सिगरेट नहीं पी सकता है। बाहर से आने वाले भी बीड़ी, सिगरेट के साथ इस गांव की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। गांव के लोग भी घरों के अंदर भांग या दूसरी वनस्पति से बनहीं पूहलें (चप्पलें) पहनते हैं। लोग सदियों से इसका पालन करते रहे हैं। हुरंग नारायण के रथ का माेहरा चांदी का बना है। अपने आप में ऐतिहासिक है। कांचा संवत् 16 को रानी प्रकाश देई ने प्रदान किया है। इतिहास के अनुसार 1534 में साहिब सेन का राज था। उनकी प|ी प्रकाश देई के काेई संतान नहीं थी। देव हुरंग नारायण की मान्यता बारे सुनकर राजा-रानी ने उनके आगे अपनी मन्नत रखी, गुहार लगाई कि उनको संतान सुख प्राप्त हो।  चौहारघाटी देवताओं की अनूठी छवि  देवी-देवताओंके महामिलन के पर्व शिवरात्रि महोत्सव में चौहारघाटी से आने वाले देवताओं की शैली अनूठी अलग ही आकर्षण की है। जब यह देवता मेले के दौरान पड्डल मैदान में विराजमान होते हैं तो किसी का भी ध्यान इनकी और आकर्षित हो जाता है। इन देवताओं के रथ के सिरे पर मोहरे के उपर कपड़ों की नई कतरनों मुकुट बनाया होता है जो पहाड़ी टोपी सी लगाई प्रतीत होता है। उसे बनाने की भी अलग कला होती है। इन प्राचीन देवताओं की अपनी गरिमा इतिहास रहा है। इतिहास के गवाह रहे देवी-देवता उस समय की कला के जीते जागते सबूत हैं। चौहार घाटी के देवता ग्रामीण दस्तकारी के प्रतीक है।  तीन दशक से नहीं अाते पराशर ऋषि  मंडीके प्रमुख अराध्य देव पराशर ऋषि भी पिछले काफी अरसे से शिवरात्रि महोत्सव में शिरकत नहीं कर रहे हैं। जबकि इन सभी ऐतिहासिक देवताओं को निमंत्रण पत्र भेजा जाता है। अराध्य देव पराशर ऋषि अपने पुजारी के अलावा किसी की पूजा को स्वीकार नहीं करते हैं। एक मर्तबा महोत्सव के दौरान मेले में आए मुख्यातिथि ने देव पराशर की पूजा की थी जिससे देवता नाराज हो गए थे। देव पराशर ने शिवरात्रि महोत्सव के दौरान पूरा मान-सम्मान मिलने के कारण महोत्सव में आने का फरमान जारी कर दिया।विश्वकेसांस्कृतिक इतिहास में हिमालय क्षेत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। इस क्षेत्र की सांस्कृतिक, धार्मिक सामाजिक गतिविधियां, पर्व, त्योहार, मेले लोकजीवन हिमालयाधिपति शिव की भक्ति से परिपूर्ण है। यहां शैव परंपरा का निर्वाह लोकजीवन का अभिन्न अंग है। कर्मकांड संबंधी देव परंपरा के संरक्षण धार्मिक अनुष्ठानों में मंडी नगर का विशेष ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक पुरातात्विक महत्व रहा है। जिससे यह नगर ‘छोटी काशी’ के नाम से विख्यात है। मंडी में शिवरात्रि पर्व अत्यंत श्रद्धा से मनाया जाता है। सात दिन तक चलने वाले इस पर्व को अंतरराष्ट्रीय मेले के रूप में मनाया जाता है।  मंडीका इतिहास : मंडीकी राजधानी सन 1526 ईस्वी तक पुरानी मंडी में ही थी। आज जिस स्थान पर घनी आबादी है उस स्थान पर घनघोर जंगल था। लोक मान्यता के अनुसार उस समय के राजा अजबर सेन को आश्चर्यचकित करने वाला स्वप्न दिखा। जिसमें शिव की पिंडी पर एक गाय दूध चढ़ा रही थी। जिस कारण सन 1526 ईस्वी में उसी स्थान पर भूतनाथ का मंदिर बनवाया गया और राजधानी भी बदल दी गई। उसी समय से मंडी नगर में शिवरात्रि मेलों का आयोजन भी होने लगा। मंडी में भगवान विष्णु के अवतार भगवान राजमाधो राय की स्थापना सन 1648 ई. में राजा सूरजसेन ने की थी। राजा सूरजसेन ने अपनी कोई संतान होने के कारण अपनी रियासत राज माधो राय को अर्पित कर दी। तभी से मंडी के सभी राजा भगवान राजमाधव के नाम से ही राज करते आए हैं।  शिवरात्रि मेला परंपरागत लोक कला एवं संस्कृति का प्रतीक है। सदियों से इस मेले का प्रारूप व्यापारिक सांस्कृतिक ही था। मगर जैसे-जैसे समाज का परिवेश बदला इसने आधुनिकता को भी सरलता से अपने में समेट लिया। लेकिन अाज भी इसका पुरातन स्वरूप बरकरार है। देव माधोराय के निमंत्रण पर मंडी जनपद के देवी-देवता इसमें भाग लेते हैं। मेले का शुभारंभ शिवपूजन माधोराय के बाबा भूतनाथ को निमंत्रण से हाेता है। हर देवता मंडी आते ही सबसे पहले देव माधाेराय के दरबार में हाजिरी भरते हैं। उनके आते जाते समय मिलन अदभुत आलौकिक होता है। मेले के शुभारंभ, मध्य समापर पर देव माधाेराय के मंदिर से पूरे राजकीय सम्मान के साथ जलेब मेला स्थल पड्डल मैदान तक आयोजित की जाती है। जलेब में विशिष्ट देवी-देवताओं के साथ माधोराय की शोभायात्रा निकाली जाती है। पूरे सात दिन देवता पड्डल मैदान में तय स्थान पर विराजमान रहकर श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देते हैं।  चौहटेकी जातर : मेलेके सात दिनों तक चलने वाले मेले के अंतिम दिन सभी देवी-देवताओं को राज परिवार की ओर से आमंत्रित कर सम्मान स्वरूप भेंट दी जाती थी। सभी देवी-देवता मंडी के मुख्य चौहटा बाजार में बैठते थे। यहीं पर राज परिवार के लोग देवताओं को मेले में आने के लिए धन्यवाद सहित उन्हें श्रद्धा स्वरूप भेंट अर्पित करते थे। अब यही परंपरा जिला प्रशासन द्वारा निभाई जाती है। इस अवसर पर श्रद्धालु अपनी श्रद्धा अनुसार भेंटें चढ़ाते हैं।  चौहारघाटीके सर्वमान्य देवता है अराध्य देव पशाकोट : पशाकोटदेव मंडी जिला की चौहार घाटी के सर्वमान्य देवता माने जाते है तथा व्यक्तिगत मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए चौहारवासी हमेशा ही देवता की शरण में जाते है। देवता का पहाड़ी शैली लकड़ी पत्थर से निर्मित आकर्षक मंदिर चौहार घाटी की पंचायत धमच्याण के गांव मठी बजगैंण में मूल स्थान है। यह देवता हूरंग नारायण देवता के बजीर माने जाते हैं।  प्राचीनपरंपरा की गवाह नरोल देवियां : अंतरराष्ट्रीयिशवरात्रि महोत्सव में शिरकत आने वाली नरोल देवियां समागम में हिस्सा नहीं लेती हैं। राजाओं के समय से चली रही परंपरा को भी आज भी नरोल देवियां निभा रही हैं। छह देवियों में बगलामुखी, मां बूढ़ी भैरवा, काश्मीरी माता, मां धूमावती, बुशाई माता, रूपेश्वरी माता शामिल हैं।  छांजणूछमाहूं देव राज देवता माधोराय की जलेब की करते है अगुवाई : अंतरराष्ट्रीयशिवरात्रि महोत्सव के दौरान निकलने वाली शाही जलेब में सबसे आगे चलने वाले दो देवता छांजणू छमांहू आपस में गुरु चेला हैं। देवता छाजणू शेषनाग के अवतार हैं। मंडी जनपद के बागीथाच से संबंधित दोनों देवता अपने आप में अनूठी परंपरा के उदाहरण हैं। देव छाजणू गुरु हैं जो महाभारतकालीन हिडिंबा पुत्र घटोत्कच रूप देव छमांहू आधादेव आधा राक्षस रूप है। राजदेवता माधोराय की जलेब की अगुवाई करने का अधिकार भी इन दोनों देवताओं को प्राप्त है। इन देवताओं के भंडार अलग-अलग होने के बावजूद जहां कहीं भी जाना होता है। दोनों देवताओं के रथ एक साथ ही चलते हैं।  देवमतलोड़ा का इतिहास महाभारत कालीन संस्कृति से जुड़ा : सिराजके भाटकीधार क्षेत्र के देव विष्णु मतलोड़ा को भगवान विष्णु के प्रतिरूप में पूजा जाता है। देवता का इतिहास महाभारतकालीन संस्कृति से जुड़ा है। कांढा गांव में करीब 150 साल पुराना लकड़ी से निर्मित मंदिर आज भी मौजूद है। मंदिर में विराजमान प्रतिमा में मां लक्ष्मी भगवान विष्णु के चरण दबा रही हैं जबकि नाभि पर आदि ब्रह्म विराजमान हैं। किवंदति है कि महाभारत युद्ध के बाद कुरुक्षेत्र से देव विष्णु मतलोड़ा द्रंग, मंडी, घासनू होते हुए भाटकीधार पहुंचे थे। बालक रूप में पहुंचे देव विष्णु मतलोड़ा का सामना यहां दैत्य से हुआ। एक महिला की सहायता से देव विष्णु मतलोड़ा ने दैत्य का संहार कर स्थानीय लोगों को उसके आतंक से छुटकारा दिलाया था। शुकदेव महर्षि : शुकदेव महार्षि का मंदिर गांव थट्टा में वर्तमान परिदृश्य के मदेनजर काष्टकला को संरक्षित करके बनाया गया है। प्राचीन मंदिर जंगल में विद्यमान है। शिवरात्रि महोत्सव में यह देवता बदार घाटी का प्रतिनिधित्व करते हैं।  अन्न-धन-जलका देवता है देव आदि ब्रह्म : आदिब्रह्म को कुल्लू जिला के खोखणा कोठी में स्थित ब्रह्म का बड़ा भाई माना जाता है। इन्हें अन्न-धन जल का देवता माना जाता है। राजाओं के समय से ही मंडी शिवरात्रि में आदि ब्रह्म की मुख्य भूमिका रही है।  100किलोमीटर पैदल चलकर शिवरात्रि में आते हैं मगरू महादेव : मंडीशहर से मगरू महादेव स्थल तक छतरी के लिए करसोग और जंजैहली से होकर पहुंचा जा सकता है। मगरू महादेव शिवरात्रि महोत्सव में भाग लेने के लिए वह 100 किलोमीटर की दूरी तय करके मंडी पहुंचते हैं। अंतरराष्ट्रीय दशहरा महोत्सव कुल्लू की तर्ज पर मंडी के महाशिवरात्रि महोत्सव मे भी देवताओं में धुर विवाद के चलते दो देवता मेले से दूरी बनाकर रखते है।  देव हुरंग नारायण का मोहरा साढ़े चार दशक पुराना  चौहारघाटीमें सबसे वरिष्ठ देव हुरंग नारायण को माना जाता है। चौहार घाटी के गांव हुरंग के कारण नारायण देवता का नाम हुरंग नारायण है। हुरंग गांव के पीछे देवता का घना जंगल है। इस जंगल में कोई व्यक्ति लकड़ी नहीं काट सकता है। प्राचीनकाल से देवी-देवता जंगलों की रक्षा कर रहे है। आज भी यह जंगल बेहद घना, सुंदर विशाल हो चुका है। हुरंग गांव में कोई भी व्यक्ति बीड़ी, सिगरेट नहीं पी सकता है। बाहर से आने वाले भी बीड़ी, सिगरेट के साथ इस गांव की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। गांव के लोग भी घरों के अंदर भांग या दूसरी वनस्पति से बनहीं पूहलें (चप्पलें) पहनते हैं। लोग सदियों से इसका पालन करते रहे हैं। हुरंग नारायण के रथ का माेहरा चांदी का बना है। अपने आप में ऐतिहासिक है। कांचा संवत् 16 को रानी प्रकाश देई ने प्रदान किया है। इतिहास के अनुसार 1534 में साहिब सेन का राज था। उनकी प|ी प्रकाश देई के काेई संतान नहीं थी। देव हुरंग नारायण की मान्यता बारे सुनकर राजा-रानी ने उनके आगे अपनी मन्नत रखी, गुहार लगाई कि उनको संतान सुख प्राप्त हो।  चौहारघाटी देवताओं की अनूठी छवि  देवी-देवताओंके महामिलन के पर्व शिवरात्रि महोत्सव में चौहारघाटी से आने वाले देवताओं की शैली अनूठी अलग ही आकर्षण की है। जब यह देवता मेले के दौरान पड्डल मैदान में विराजमान होते हैं तो किसी का भी ध्यान इनकी और आकर्षित हो जाता है। इन देवताओं के रथ के सिरे पर मोहरे के उपर कपड़ों की नई कतरनों मुकुट बनाया होता है जो पहाड़ी टोपी सी लगाई प्रतीत होता है। उसे बनाने की भी अलग कला होती है। इन प्राचीन देवताओं की अपनी गरिमा इतिहास रहा है। इतिहास के गवाह रहे देवी-देवता उस समय की कला के जीते जागते सबूत हैं। चौहार घाटी के देवता ग्रामीण दस्तकारी के प्रतीक है।  तीन दशक से नहीं अाते पराशर ऋषि  मंडीके प्रमुख अराध्य देव पराशर ऋषि भी पिछले काफी अरसे से शिवरात्रि महोत्सव में शिरकत नहीं कर रहे हैं। जबकि इन सभी ऐतिहासिक देवताओं को निमंत्रण पत्र भेजा जाता है। अराध्य देव पराशर ऋषि अपने पुजारी के अलावा किसी की पूजा को स्वीकार नहीं करते हैं। एक मर्तबा महोत्सव के दौरान मेले में आए मुख्यातिथि ने देव पराशर की पूजा की थी जिससे देवता नाराज हो गए थे। देव पराशर ने शिवरात्रि महोत्सव के दौरान पूरा मान-सम्मान मिलने के कारण महोत्सव में आने का फरमान जारी कर दिया।
 

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